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बिहार की ग्रामीण महिलाओं पर कर्ज़ का संकट: चुप्पी में दबा दर्द

  • लेखक की तस्वीर: Vivek Raj
    Vivek Raj
  • 26 जुल॰
  • 3 मिनट पठन
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बिहार के गांवों में गरीबी की बात आम है, लेकिन एक और संकट है जो उतनी ही गंभीर है — बढ़ता कर्ज़ और उससे जुड़ा तनाव। यह बोझ खासकर उन महिलाओं के कंधों पर है जो पहले से ही समाज के हाशिए पर हैं।

उनके लिए कर्ज़ लेना कोई शौक नहीं, ज़रूरत है — बेटी की शादी, बीमार परिजन का इलाज, या कोई आपात स्थिति। लेकिन छोटी सी उधारी कब एक अंतहीन कर्ज़ में बदल जाती है, उन्हें पता भी नहीं चलता।


उधार लेना मजबूरी, चुकाना मुश्किल


दरभंगा जैसे इलाकों में महिलाएं खेतों के किनारे या पेड़ों की छांव में बैठकर अपनी-अपनी कहानी सुनाती हैं — कैसे उन्हें जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए कर्ज़ लेना पड़ा।

वे पैसे जुटाती हैं:

  • स्वयं सहायता समूहों से

  • माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से

  • और स्थानीय साहूकारों से


आमतौर पर ₹30,000 से ₹75,000 तक का लोन लिया गया, लेकिन चुकाते-चुकाते यह रकम दोगुनी हो गई। दस्तावेज़ के नाम पर सिर्फ आधार कार्ड मांगा गया, न ब्याज की स्पष्ट जानकारी दी गई और न ही चुकौती की कोई समझदारी भरी व्यवस्था।


वसूली एजेंटों की दहशत


लोन लेना जितना आसान, उसे चुकाना उतना ही कठिन। वसूली एजेंट दरवाज़े पर दस्तक देते हैं — और जब किश्तें नहीं चुकाई जातीं, तो शुरू होता है मानसिक उत्पीड़न:

  • गालियाँ

  • पुलिस में केस की धमकी

  • घरेलू सामान की जब्ती


बिस्तर, गैस सिलेंडर, बर्तन — सब कुछ उठा ले जाते हैं। कुछ महिलाओं से कहा गया कि सड़कों पर भीख मांगो या कुछ भी करो लेकिन पैसा चुकाओ। जिनके घरों में पुरुष सदस्य नहीं होते, उनकी हालत और भी भयावह होती है।


कर्ज़ से बचने की कीमत — पलायन


उत्पीड़न से तंग आकर कई परिवार गांव छोड़कर पंजाब जैसे राज्यों में चले जाते हैं। वहां मजदूरी कर गुज़ारा करते हैं — कमाते हैं, छुपते हैं, डरते हैं। पर यह डर एजेंटों के रोज़ के सामना करने से कम लगता है।

जब महीनों बाद वे घर लौटते हैं, तो फिर वही डर, वही धमकियाँ, वही अपमान शुरू हो जाता है। कुछ एजेंट तो आधार कार्ड तक ज़ब्त कर लेते हैं, ताकि दबाव बना रहे।


यह संकट क्यों गहराया?


हाल के सर्वे बताते हैं कि बिहार में लोग अब बैंकों की बजाय गैर-संस्थागत स्रोतों से (जैसे दुकानदार, साहूकार, पड़ोसी) कर्ज़ ले रहे हैं। वजह? बैंकों की पहुंच कम हो गई है, और माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के नियम इतने सख्त हैं कि लोग फंस जाते हैं।


छोटी सी चूक बड़े संकट का कारण बनती है। ब्याज दरें तय नहीं होतीं, और वसूली प्रक्रिया बिल्कुल असंवेदनशील होती है।


नियम हैं, पर पालन नहीं


भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने साफ कहा है कि:

  • वसूली में कोई उत्पीड़न नहीं होना चाहिए

  • उधारकर्ता की गरिमा बनी रहनी चाहिए

  • किश्तों का समय आमदनी के अनुसार तय होना चाहिए


लेकिन बिहार में इन नियमों की जमीन पर कोई अहमियत नहीं दिखती। जहां केरल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने माइक्रोफाइनेंस पर राज्यस्तरीय नियंत्रण स्थापित किया है, वहीं बिहार में अब तक ऐसी कोई पहल नहीं हुई है।


अब क्या किया जाए?


इस पूरे मसले से एक बात साफ है — केवल कर्ज़ उपलब्ध कराना काफी नहीं। ज़रूरत है:


✔️ उधार लेने वालों की कानूनी और सामाजिक सुरक्षा

✔️ वाजिब ब्याज और किश्त व्यवस्था

✔️ वसूली एजेंटों पर सख़्त निगरानी

✔️ स्वास्थ्य सेवाओं और आय के स्थायी साधनों तक पहुंच


वरना जो कर्ज़ ‘सहारा’ बनने आए थे, वही इन परिवारों को और गहराई में धकेलते रहेंगे।


✍️ आपकी राय में इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है? क्या आपने या आपके आसपास किसी ने ऐसा अनुभव किया है? अपनी बात नीचे कमेंट में ज़रूर साझा करें।


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